नंदन-वन की नंदिनी

नंदन-वन की नंदिनी

Saturday, December 27, 2008

हाँ, ख़त्म करना है ये .खून की होली..


झील में झांका
यहाँ से .
मुस्कुराते चेहरे ने मुझे घूरा ,
मैंने भी कोशिश की ।

एक पत्ता गिरा ऊपर से ,
मै सकपका गयी ,
झील फिर से हँसी ।
अरे ..वो तो सूखा पत्ता था
बम नहीं।

थरथराते होठो से
फिर से कोशिश की .
क्या ? तूने सुना?
मेरा मुख्य सवाल था ।
हां ,जब तेरी आँखों की बूंदे
मुझमे समा गयी ,
मेरा सवाल था -क्या होगा ?
वह बोली--
" फिर से बच्चे माँ से पूछेंगे -
''माँ पापा कब आयेंगे ?''
सुनकर मैंने उसे देखने की कोशिश की ,
आँखों में पानी का परदा था।
वह बोली ..
" सीमा के उस पार वाले बच्चे भी अपनी
माँ से यही सवाल करेंगे।
निस्तेज आँखें उसे घूर रही थीं ।
अनजाने डर से ,
हवा ने मुझे जोर से हिलाया,
पत्तों के साथ।
शायद मुझे अभी....
मै डरी नहीं ,आत्मा बोली ..
" अरे वह तो आराम से सो रहा है "
अपनी कुर्सी पर ।
झील अब जोर से हस रही थी मुझ पर ,
तब मैंने कुछ सोचा -
मेरा डर मर चुका था ,
हां हां ख़त्म करना है ,
ये खून की
होली हमेशा के लिए।

--नंदिनी पाटिल